हाल ही में उत्तरप्रदेश के एक गांव से आई एक दिल दहला देने वाली खबर ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। एक 15 दिन के नवजात बच्चे को उसकी ही मां ने फ्रिज में रख दिया क्योंकि वह खुद कई रातों से नींद नहीं ले पा रही थी। मां सोने चली गई और बच्चा रोता रहा। आखिरकार, जब दादी ने बच्चे के रोने की आवाज सुनी, तब उसे बाहर निकाला गया। यह घटना जितनी चौंकाने वाली है, उतनी ही जटिल भी, इसमें मां की मानसिक स्थिति, पारिवारिक भूमिका, समाज की संवेदनशीलता और सिस्टम की नाकामियां सब शामिल हैं।
घटना का विवरण
यह घटना उत्तरप्रदेश के एक ग्रामीण क्षेत्र में हुई, जहाँ एक महिला ने अपने 15 दिन के नवजात शिशु को घर के फ्रिज में रख दिया और खुद सोने चली गई। मां का कहना था कि वह कई रातों से सो नहीं पा रही थी क्योंकि बच्चा लगातार रोता रहता था। उस दिन भी बच्चा काफी देर से रो रहा था और मां मानसिक व शारीरिक रूप से बेहद थकी हुई थी। जब दादी ने कुछ देर बाद बच्चे की रोने की आवाज फ्रिज से आती हुई सुनी तो उन्होंने तुरंत दरवाजा खोला और बच्चे को बाहर निकाला। सौभाग्यवश, समय रहते बच्चे को निकाल लिया गया और वह अब सुरक्षित है।
क्या यह सिर्फ एक “मां की गलती” है?
इस घटना के बाद सोशल मीडिया और समाचार माध्यमों पर मां की आलोचना शुरू हो गई। कई लोगों ने उसे निर्दयी, अज्ञानी और अयोग्य मां कहा लेकिन क्या यह आलोचना सही है? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए हमें थोड़ा गहराई में जाकर सोचना होगा। मां ने जो किया, वह निश्चित रूप से गलत और खतरनाक था लेकिन क्या उसके पीछे कोई मानसिक या सामाजिक दबाव था? क्या वह पोस्टपार्टम डिप्रेशन से जूझ रही थी? क्या वह अकेली थी और उसे पर्याप्त मदद नहीं मिल रही थी?
पोस्टपार्टम डिप्रेशन: एक अनदेखा पहलू
कई बार डिलीवरी के बाद महिलाएं पोस्टपार्टम डिप्रेशन (PPD) का शिकार हो जाती हैं, जिसमें वे अत्यधिक तनाव, थकान, उदासी या असहायता महसूस करती हैं। यह एक मानसिक स्थिति है जो इलाज के योग्य है लेकिन भारत जैसे देशों में इसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस मामले में मां का बार-बार यह कहना कि वह “बहुत थकी हुई थी” और “सोना चाहती थी”, इस बात का संकेत हो सकता है कि वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी कमजोर हो चुकी थी।
परिवार और समाज की भूमिका
दुर्भाग्यवश, भारतीय समाज में मां बनने के बाद महिला को एक आदर्श ‘त्यागमयी’ रूप में देखा जाता है, जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह हर परिस्थिति में धैर्य रखे और अपनी थकावट या भावनाओं को नजरअंदाज करे लेकिन क्या परिवार को यह नहीं देखना चाहिए था कि वह महिला पर्याप्त आराम नहीं कर पा रही है? क्या उसे पर्याप्त सहयोग मिल रहा था? क्या दादी, पिता या अन्य सदस्य थोड़ी देर बच्चे को संभाल सकते थे? यह घटना यह भी दिखाती है कि कैसे नवजात की देखभाल सिर्फ मां की जिम्मेदारी मान ली जाती है, जो कि न तो व्यावहारिक है और न ही न्यायसंगत।
गांवों में स्वास्थ्य जागरूकता की कमी
यह मामला एक और महत्वपूर्ण बात उजागर करता है, भारत के गांवों में अब भी प्रसव के बाद मां की मानसिक और भावनात्मक स्थिति को समझने वाले या उस पर ध्यान देने वाले बहुत कम लोग हैं। स्वास्थ्य सेवाएं प्रसव तक सीमित होती हैं, जबकि डिलीवरी के बाद का मानसिक स्वास्थ्य लगभग पूरी तरह उपेक्षित रहता है। सरकारी योजनाओं में भी मां को पोषण और टीकाकरण तक की जानकारी दी जाती है लेकिन मानसिक थकावट, अवसाद, नींद की कमी जैसी चीजों को गंभीरता से नहीं लिया जाता।
सिस्टम की जिम्मेदारी
स्वास्थ्य विभाग, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा बहुएं, ये सब यदि गांव में सक्रिय रूप से जुड़ी रहती तो शायद इस मां को कोई सहारा मिल सकता था। बच्चे को फ्रिज में रखना निश्चित रूप से एक खतरनाक कदम था लेकिन अगर मां को मानसिक सहयोग मिलता तो शायद यह स्थिति ही न बनती। सरकार को चाहिए कि वह पोस्टपार्टम के लिए विशेष परामर्श और हेल्पलाइन सेवा शुरू करे, खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां महिलाएं अक्सर चुपचाप पीड़ा सहती रहती हैं।
नवजात की सुरक्षा: जिम्मेदारी सबकी
इस घटना ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि नवजात की सुरक्षा केवल मां की जिम्मेदारी नहीं हो सकती। जब एक बच्चा जन्म लेता है तो पूरा परिवार, पूरा समाज उसकी देखभाल के लिए जिम्मेदार होता है। हर सदस्य को यह समझने की जरूरत है कि मां को भी एक इंसान के रूप में देखना जरूरी है, जो थक सकती है, टूट सकती है और उसे भी मदद की जरूरत होती है।
निष्कर्ष: संवेदनशीलता बनाम निंदा
इस खबर को सनसनीखेज बनाने के बजाय हमें इससे सीख लेने की जरूरत है। हमें यह समझने की जरूरत है कि मातृत्व सिर्फ खुशी नहीं, एक चुनौती भी होती है। हर मां को मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक समर्थन की जरूरत होती है, खासकर उस शुरुआती समय में जब बच्चा हर दो घंटे में उठता है, रोता है और मां का सोना भी एक लग्जरी बन जाता है। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना होगा जो मदद करे, सवाल पूछे लेकिन समझदारी से और हर मां को अकेले न छोड़े। इस घटना में मां ने जो किया, वह गलत था लेकिन उसे अकेले दोषी ठहराना और बाकी पहलुओं को नजरअंदाज करना एक बड़ी चूक होगी।